अब मैं मुझमें बाकी नहीं
अब मैं बाकी कहां
तुम जो ठहरे यहां
मुझमें जो था कहीं
वो अब बाकी नहीं ।।
मैं अब वहीं रहा
जहां कोई गया नहीं
कोई कल कहीं बिता नहीं
रातें गुजरी नहीं
दिन ठहरे नहीं
शामें लिपट कर रह गई
उनमें भी मैं बाकी नहीं ।।
मैं खुद से कभी मिला नहीं
झूठ बोलें हैं आइने सभी
बस परछाइयां संग रही
कदमों के संग साथ चली
छाया जो अंधेरा कहीं
मुझसे मिलने को अब बचा यही
उससे भी अब मैं वाकिफ नहीं ।।
कोई लम्हा बिता नहीं
दिन कोई गुजरा नहीं
जो तू मुझको मिला नहीं
सदियों सा लगता रहा
लम्हा यह ठहरा रहा
मुझमें ही मैं अधूरा रहा
फिर भी बाकी रहा कहीं ।।
लम्हें हैं ये गुजरने को कहीं
लबों की ख़ामोशी कहने को यही
ये तन्हाइयां गुजर जाने दो यहीं
ठहरी जो थी अब तलक हममें कहीं
लबों पर बनकर खामोशी की चादर वही
है टूट रही, है जुड़ रही
संन्नाटों के तारों से मीठी सी धुन जुड़ रही
मुझमें टूट कर इस कदर बिखर रही
जो अब तक मुझमें बाकी सी रही ।।
मुझमें अब मैं बाकी नहीं
मैं हरदम तुममें ही रही
हो रही अब मैं रुखसत मुझसे ही
अब मैं मुझमें बाकी नहीं ।।
- कंचन सिंगला ©®
लेखनी प्रतियोगिता -08-Nov-2022
Swati chourasia
09-Nov-2022 10:55 AM
बहुत ही खूबसूरत रचना 👌👌
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Abhinav ji
09-Nov-2022 09:18 AM
Very nice👍
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Punam verma
09-Nov-2022 08:08 AM
Very nice
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